बॉलीवुड, भारतीय सिनेमा का सबसे चमकदार चेहरा, न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह समाज का दर्पण भी है। यहाँ कहानियाँ, सपने और महत्वाकांक्षाएँ जीवंत होती हैं। लेकिन इस चमक-दमक भरी दुनिया में महिलाओं की स्थिति हमेशा से चर्चा का विषय रही है। क्या बॉलीवुड में महिलाओं को वास्तव में समान अवसर मिलते हैं? या फिर यहाँ भी वे उन संघर्षों से जूझती हैं जो समाज के अन्य क्षेत्रों में आम हैं? इस लेख में हम बॉलीवुड में महिलाओं के अवसरों और संघर्षों की गहराई में उतरेंगे, ताज़ा घटनाओं, शोध और छिपी सच्चाइयों के साथ इस विषय को विस्तार से समझेंगे।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: बॉलीवुड में महिलाओं की शुरुआत
प्रारंभिक दौर और साइलेंट युग
बॉलीवुड की शुरुआत 1913 में दादा साहब फाल्के की फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" से हुई। उस समय, सिनेमा में महिलाओं की भागीदारी लगभग न के बराबर थी। सामाजिक रूढ़ियों के कारण, महिलाएँ अभिनय को एक सम्मानजनक पेशा नहीं मानती थीं। इस दौर में पुरुष ही महिला किरदार निभाते थे। हालांकि, 1920 के दशक में कुछ साहसी महिलाओं जैसे सुलोचना और ज़ुबैदा ने सिनेमा में कदम रखा, जिसने धीरे-धीरे इस धारणा को तोड़ा।
टॉकीज़ और स्वर्ण युग
1930 के दशक में टॉकीज़ के आगमन के साथ, बॉलीवुड में महिलाओं के लिए नए दरवाजे खुले। देविका रानी, जिन्हें भारतीय सिनेमा की प्रथम महिला माना जाता है, ने 1933 की फिल्म "कर्मा" में अभिनय किया। इस फिल्म में उनके द्वारा निभाया गया चार मिनट का किसिंग सीन उस समय सनसनीखेज था। लेकिन यह दौर भी चुनौतियों से भरा था। अभिनेत्रियों को सामाजिक तिरस्कार और पारिवारिक विरोध का सामना करना पड़ता था। फिर भी, लीला चिटनिस, दुर्गा खोटे और शोभना समर्थ जैसी अभिनेत्रियों ने अपनी प्रतिभा से बॉलीवुड में अपनी जगह बनाई।
आधुनिक बॉलीवुड: अवसरों का विस्तार
अभिनय से परे भूमिकाएँ
आज का बॉलीवुड केवल अभिनय तक सीमित नहीं है। महिलाएँ अब निर्देशन, लेखन, निर्माण और तकनीकी क्षेत्रों में भी अपनी पहचान बना रही हैं। मेघना गुलज़ार, ज़ोया अख्तर, और फराह खान जैसी निर्देशक अपनी फिल्मों के माध्यम से नई कहानियाँ और दृष्टिकोण पेश कर रही हैं। 2023 में, ज़ोया अख्तर की वेब सीरीज़ "द आर्चीज़" ने युवा दर्शकों के बीच खूब चर्चा बटोरी। इसी तरह, गौरी शिंदे और नित्या मेहरा जैसी निर्माता-निर्देशक ने "इंग्लिश विंग्लिश" और "बाजी" जैसी फिल्मों के साथ महिलाओं की कहानियों को केंद्र में लाया।
हाल के वर्षों में, प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण जैसी अभिनेत्रियाँ निर्माता के रूप में भी उभरी हैं। प्रियंका की प्रोडक्शन कंपनी पर्पल पेबल पिक्चर्स ने "वेंटिलेटर" और "पाव" जैसी समीक्षकों द्वारा प्रशंसित फिल्में बनाईं। यह दर्शाता है कि बॉलीवुड में महिलाओं के लिए अवसर बढ़ रहे हैं, लेकिन क्या ये अवसर सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं?
महिला-केंद्रित फिल्मों का उदय
पिछले दशक में, बॉलीवुड ने महिला-केंद्रित फिल्मों की ओर एक बड़ा कदम उठाया है। "क्वीन" (2014), "मर्दानी" (2014), "तुम्हारी सुलु" (2017), और "गंगूबाई काठियावाड़ी" (2022) जैसी फिल्मों ने न केवल व्यावसायिक सफलता हासिल की, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर भी प्रकाश डाला। इन फिल्मों में कंगना रनौत, रानी मुखर्जी, विद्या बालन, और आलिया भट्ट जैसी अभिनेत्रियों ने अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का दिल जीता।
हालांकि, यह भी सच है कि ऐसी फिल्मों की संख्या अभी भी सीमित है। एक अध्ययन के अनुसार, 2019 में रिलीज़ हुई शीर्ष 100 बॉलीवुड फिल्मों में केवल 15% में ही महिलाएँ मुख्य किरदार में थीं। इससे पता चलता है कि महिला-केंद्रित कहानियों को अभी और मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत है।
बॉलीवुड में महिलाओं के सामने चुनौतियाँ
लैंगिक असमानता और वेतन का अंतर
बॉलीवुड में लैंगिक असमानता एक गंभीर मुद्दा है। 2018 में, कई अभिनेत्रियों ने वेतन असमानता पर खुलकर बात की। अनुष्का शर्मा, प्रियंका चोपड़ा, और कंगना रनौत ने बताया कि पुरुष सह-कलाकारों की तुलना में उन्हें कम पारिश्रमिक मिलता है। उदाहरण के लिए, एक बड़ी बजट की फिल्म में, जहाँ पुरुष अभिनेता को 50 करोड़ रुपये मिल सकते हैं, वहीं महिला अभिनेत्री को उसी स्तर की लोकप्रियता के बावजूद 5-10 करोड़ रुपये ही मिलते हैं।
"हमारी इंडस्ट्री में यह धारणा है कि पुरुष अभिनेता ही फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर हिट कराते हैं। लेकिन 'क्वीन' और 'तनु वेड्स मनु' जैसी फिल्में इस मिथक को तोड़ती हैं।" - कंगना रनौत
उम्रवाद और सीमित करियर अवधि
बॉलीवुड में उम्रवाद एक और बड़ी चुनौती है। जहाँ पुरुष अभिनेताओं को 50-60 की उम्र में भी रोमांटिक हीरो के रूप में स्वीकार किया जाता है, वहीं अभिनेत्रियों को 30 की उम्र के बाद माँ या बहन जैसे किरदारों में ढकेल दिया जाता है। विद्या बालन ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्हें 35 की उम्र में "परिपक्व" किरदारों के लिए संपर्क किया जाने लगा, जबकि उनके पुरुष सह-कलाकार युवा किरदार निभा रहे थे।
हालांकि, कुछ अभिनेत्रियाँ जैसे दीपिका पादुकोण और अनुष्का शर्मा ने इस रूढ़ि को तोड़ा है। दीपिका की 2023 की फिल्म "पठान" में उनकी भूमिका को दर्शकों ने खूब सराहा, जिसमें उन्होंने एक मजबूत और ग्लैमरस किरदार निभाया।
यौन उत्पीड़न और #MeToo आंदोलन
2018 में भारत में #MeToo आंदोलन ने बॉलीवुड में यौन उत्पीड़न के कई मामले उजागर किए। तनुश्री दत्ता ने नाना पाटेकर पर 2008 में एक फिल्म के सेट पर अनुचित व्यवहार का आरोप लगाया, जिसने इस आंदोलन को गति दी। इसके बाद, कई अभिनेत्रियों और अन्य महिला कर्मचारियों ने निर्माताओं, निर्देशकों, और सह-कलाकारों पर उत्पीड़न के आरोप लगाए।
हालांकि, इस आंदोलन का प्रभाव सीमित रहा। कई आरोपियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई, और कुछ मामलों में पीड़िताओं को ही ट्रोलिंग और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। यह दर्शाता है कि बॉलीवुड में कार्यस्थल की सुरक्षा अभी भी एक बड़ा मुद्दा है।
हाल की घटनाएँ और समाचार
सुशांत सिंह राजपूत केस और रिया चक्रवर्ती
2020 में अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु ने बॉलीवुड में एक बड़ा विवाद खड़ा किया। उनकी गर्लफ्रेंड और अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को इस मामले में मुख्य संदिग्ध बनाया गया। रिया को न केवल कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ा, बल्कि उन्हें सोशल मीडिया पर भारी ट्रोलिंग और चरित्र हनन का भी सामना करना पड़ा। 2025 में, जब सीबीआई ने इस मामले में अपनी क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की और रिया को क्लीन चिट दी, तब अभिनेत्री पूजा भट्ट ने अक्षय कुमार के एक पुराने ट्वीट को साझा कर रिया का समर्थन किया।
इस घटना ने बॉलीवुड में महिलाओं के प्रति समाज की दोहरी मानसिकता को उजागर किया। जहाँ पुरुष कलाकारों को अक्सर सहानुभूति मिलती है, वहीं महिलाओं को आसानी से निशाना बनाया जाता है।
जया बच्चन का पब्लिक इंटरैक्शन
2025 में, जया बच्चन ने एक मेहंदी समारोह में पापाराज़ी के साथ हल्के-फुल्के अंदाज़ में बातचीत की, जो वायरल हो गया। यह घटना इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि जया अक्सर मीडिया के साथ सख्त रवैया अपनाने के लिए जानी जाती हैं। इस घटना ने दिखाया कि कैसे बॉलीवुड की वरिष्ठ अभिनेत्रियाँ अब भी सार्वजनिक जीवन में अपनी मौजूदगी बनाए रखती हैं, लेकिन उन्हें हर कदम पर जाँचा जाता है।
शर्मिला टैगोर की कहानी
2025 में, शर्मिला टैगोर ने एक साक्षात्कार में खुलासा किया कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत में किराए का भुगतान करने के लिए फिल्में साइन की थीं। यह बयान बॉलीवुड में महिलाओं के आर्थिक संघर्षों को दर्शाता है, खासकर उस दौर में जब अभिनय को स्थिर पेशा नहीं माना जाता था। शर्मिला की यह कहानी आज की युवा अभिनेत्रियों के लिए प्रेरणा है, जो आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना करती हैं।
शोध और छिपी सच्चाइयाँ
महिलाओं का प्रतिनिधित्व: आँकड़े और विश्लेषण
यूनेस्को की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय सिनेमा में केवल 12% फिल्में ही महिलाओं द्वारा निर्देशित की जाती हैं। इसके अलावा, बॉलीवुड में तकनीकी भूमिकाओं (जैसे छायांकन, संपादन, और ध्वनि डिज़ाइन) में महिलाओं की भागीदारी 5% से भी कम है। यह असंतुलन न केवल अवसरों की कमी को दर्शाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि बॉलीवुड में लैंगिक समानता अभी दूर की कौड़ी है।
एक अन्य शोध में पाया गया कि बॉलीवुड फिल्मों में महिलाओं को अक्सर स्टीरियोटाइप्ड किरदारों (जैसे ग्लैमरस नायिका या बलिदानी माँ) में दिखाया जाता है। 2015-2020 के बीच रिलीज़ हुई फिल्मों में, 70% महिला किरदारों को या तो रोमांटिक पार्टनर या पारिवारिक भूमिकाओं में चित्रित किया गया। इससे यह सवाल उठता है कि क्या बॉलीवुड वास्तव में महिलाओं की विविधता को दर्शा रहा है?
नेपोटिज़्म और अवसरों का असमान वितरण
बॉलीवुड में नेपोटिज़्म एक और बड़ा मुद्दा है। स्टार किड्स जैसे आलिया भट्ट, अनन्या पांडे, और जान्हवी कपूर को आसानी से बड़ी फिल्में मिल जाती हैं, जबकि बाहरी अभिनेत्रियों को अपनी जगह बनाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। कंगना रनौत ने कई बार इस मुद्दे पर खुलकर बात की है, और 2020 में सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद यह चर्चा और तेज़ हो गई थी।
हालांकि, कुछ का तर्क है कि नेपोटिज़्म केवल बॉलीवुड तक सीमित नहीं है और यह हर उद्योग में मौजूद है। फिर भी, यह सच है कि बाहरी प्रतिभाओं, खासकर महिलाओं, को अपने लिए जगह बनाने में अधिक समय और मेहनत लगानी पड़ती है।
सकारात्मक बदलाव और भविष्य की संभावनाएँ
महिलाओं की नई पीढ़ी
आज की युवा अभिनेत्रियाँ जैसे यामी गौतम, तापसी पन्नू, और भूमि पेडनेकर न केवल अपने अभिनय के लिए जानी जाती हैं, बल्कि सामाजिक मुद्दों पर अपनी राय रखने के लिए भी। तापसी ने 2020 में अपनी फिल्म "थप्पड़" के माध्यम से घरेलू हिंसा पर एक सशक्त संदेश दिया, जिसे दर्शकों और समीक्षकों ने खूब सराहा।
इसके अलावा, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने महिलाओं के लिए नए अवसर खोले हैं। नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम जैसे मंचों पर "दिल्ली क्राइम", "मेड इन हेवन", और "फोर मोर शॉट्स प्लीज़" जैसी सीरीज़ में महिलाओं ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई हैं। यह दर्शाता है कि डिजिटल स्पेस ने बॉलीवुड की पारंपरिक सीमाओं को तोड़ा है।
नीतिगत बदलाव और समर्थन
बॉलीवुड में कार्यस्थल की सुरक्षा के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं। 2018 के #MeToo आंदोलन के बाद, कई प्रोडक्शन हाउस ने यौन उत्पीड़न के खिलाफ नीतियाँ लागू कीं। इसके अलावा, सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सीबीएफसी) ने भी लैंगिक संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए दिशानिर्देश जारी किए हैं।
हालांकि, इन नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन अभी बाकी है। कई छोटे प्रोडक्शन हाउस अभी भी इन नियमों का पालन नहीं करते, जिसके कारण नई और कम अनुभवी अभिनेत्रियाँ असुरक्षित महसूस करती हैं।
निष्कर्ष
बॉलीवुड में महिलाओं के लिए अवसर और संघर्ष एक सिक्के के दो पहलू हैं। जहाँ एक ओर नई पीढ़ी की अभिनेत्रियाँ और फिल्म निर्माता अपने दम पर इंडस्ट्री में बदलाव ला रही हैं, वहीं लैंगिक असमानता, उम्रवाद, और यौन उत्पीड़न जैसे मुद्दे अभी भी मौजूद हैं। हाल की घटनाएँ जैसे रिया चक्रवर्ती केस और जया बच्चन का पब्लिक इंटरैक्शन दिखाते हैं कि बॉलीवुड में महिलाओं की हर गतिविधि पर नज़र रखी जाती है।
[](https://www.livehindustan.com/entertainment/bollywood/pooja-bhatt-shares-akshay-kumar-5-year-old-tweet-on-sushant-singh-rajput-case-as-rhea-chakraborty-gets-clean-chit-201742739238936.html)शोध और आँकड़े बताते हैं कि बॉलीवुड में लैंगिक समानता की राह अभी लंबी है। लेकिन, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और सामाजिक जागरूकता के बढ़ते प्रभाव के साथ, भविष्य आशाजनक दिखता है। यदि बॉलीवुड को वास्तव में समाज का दर्पण बनना है, तो उसे महिलाओं को न केवल स्क्रीन पर, बल्कि स्क्रीन के पीछे भी समान अवसर देने होंगे।
इस चमकती दुनिया में, जहाँ सपने हकीकत बनते हैं, हर महिला को बिना किसी डर या भेदभाव के अपने सपनों को पूरा करने का हक है। क्या बॉलीवुड इस दिशा में और तेज़ी से कदम उठाएगा? यह समय ही बताएगा।
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